विभूतिविस्तरयोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 10 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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श्लोक        1 - 10        11 - 20       21 - 30       31 - 40       41 - 42      
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श्री भगवानुवाच
भूय एव महाबाहो
शृणु मे परमं वचः |
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय
वक्ष्यामि हितकाम्यया ||
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न मे विदु स्सुरगणाः
प्रभवं न महर्षयः |
अह मादिर्हि देवानां
महर्षीणां च सर्वशः ||
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यो मा मज मनादिं च
वेत्ति लोकमहेश्वरम् |
असम्मूढ स्स मर्त्येषु
सर्वपापैः प्रमुच्यते ||
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बुद्धि र्ज्ञान मसम्मोहः
क्षमा सत्यं दम श्शमः |
सुखं दुःखं भवोऽभावो
भयं चाभयमेव च ||
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अहिंसा समता तुष्टिः
तपो दानं यशोऽयशः |
भवन्ति भावा भूतानां
मत्त एव पृथग्विधाः ||
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महर्षय स्सप्त पूर्वे
चत्वारो मनव स्तथा |
मद्भावा मानसा जाताः
येषां लोक इमाः प्रजाः ||
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एतां विभूतिं योगं च
मम यो वेत्ति तत्त्वतः |
सोऽविकंप्येन योगेन
युज्यते नाऽत्र संशयः ||
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अहं सर्वस्य प्रभवो
मत्त स्सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां
बुधा भाव समन्विताः ||
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मच्चित्ताः मद्गतप्राणाः
बोधयन्तः परस्परम् |
कथय न्त श्च मां नित्यं
तुष्यन्ति च रमन्ति च ||
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तेषां सततयुक्तानां
भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं
येन मा मुपयान्ति ते ||
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