विश्वरूपसंदर्शनयोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 11 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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श्लोक        1 - 10        11 - 20       21 - 30       31 - 40       41 - 50       51 - 55      
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अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं
गुह्य मध्यात्म संङ्ञितम् |
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन
मोहोऽयं विगतो मम ||
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भवाप्ययौ हि भूतानां
श्रुतौ विस्तरशो मया |
त्वत्तः कमलपत्राक्ष!
माहात्म्यमपि चाव्ययम् ||
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एवमेतत् यथात्थ त्वं
आत्मानं परमेश्वर! |
द्रष्टु मिच्छामि ते रूपं
ऐश्वरं पुरुषोत्तम! ||
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मन्यसे यदि तच्छक्यं
मया द्रष्टुमिति प्रभो! |
योगेश्वर! ततो मे त्वं
दर्शयात्मान मव्ययम् ||
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श्री भगवानुवाच
पश्य मे पार्थ! रूपाणि
शतशोऽथ सहस्रशः |
नानाविधानि दिव्यानि
नानावर्णाकृतीनि च ||
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पश्यादित्यान् वसून् रुद्रान्
अश्विनौ मरुत स्तथा |
बहू न्यदृष्ट पूर्वाणि
पश्याश्चर्याणि भारत! ||
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इहैकस्थं जगत् कृत्स्नं
पश्याद्य सचराचरम् |
मम देहे गुडाकेश!
यच्चान्यत् द्रष्टु मिच्छसि ||
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न तु मां शक्ष्यसे द्रष्टुं
अनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षुः
पश्य मे योग मैश्वरम् ||
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संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्!
महायोगेश्वरो हरिः |
दर्शयामास पार्थाय
परमं रूप मैश्वरम् ||
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अनेक वक्त्रनयनं
अनेकाद्भुत दर्शनम् |
अनेक दिव्याभरणं
दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||
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