क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 13 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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श्लोक        1 - 10        11 - 20       21 - 30       31 - 34      
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श्री भगवानुवाच
इदं शरीरं कौंतेय!
क्षेत्र मित्यभिधीयते |
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः
क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ||
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क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि
सर्वक्षेत्रेषु भारत! |
क्षेत्र क्षेत्रज्ञयोर् ज्ञानं
यत्तद् ज्ञानं मतं मम ||
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तत् क्षेत्रं यच्च यादृक्च
यद्विकारि यतश्च यत् |
स च यो यत् प्रभावश्च
तत् समासेन मे शृणु ||
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ऋषिभि र्बहुधा गीतं
छन्दोभि र्विविधैः पृथक् |
ब्रह्मसूत्र पदै श्चैव
हेतुमद्भि र्विनिश्चितैः ||
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महाभूता न्यहंकारो
बुद्धि रव्यक्त मेव च |
इंद्रियाणि दशैकं च
पंच चेंद्रिय गोचराः ||
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इच्छा द्वेष स्सुखं दुःखं
संघात श्चेतना धृतिः |
एतत् क्षेत्रं समासेन
सविकार मुदाहृतम् ||
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अमानित्व मदंभित्वं
अहिंसा क्षांति रार्जवं |
आचार्योपासनं शौचं
स्थैर्य मात्मविनिग्रहः ||
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इंद्रियार्थेषु वैराग्यं
अनहंकार एव च |
जन्म मृत्यु जरा व्याधि
दुःख दोषानु दर्शनम् ||
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असक्ति रनभिष्वंगः
पुत्रदारगृहादिषु |
नित्यं च सम चित्तत्वं
इष्टानिष्टोपपत्तिषु ||
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मयि चानन्य योगेन
भक्ति रव्यभिचारिणी |
विविक्त देश सेवित्वं
आरति र्जनसंसदि ||
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