मोक्षसन्न्यासयोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 18 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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अर्जुन उवाच
सन्यासस्य महाबाहो!
तत्त्वमिच्छामि वेदितुं |
त्यागस्य च हृषीकेश!
पृथक् केशिनिषूदन! ||
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श्री भगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं
सन्न्यासं कवयो विदुः |
सर्वकर्मफल त्यागं
प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||
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त्याज्यं दोषव दित्येके
कर्म प्राहु र्मनीषिणः |
यज्ञदान तपः कर्म
न त्याज्यं इति चापरे ||
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निश्चयं शृणु मे तत्र
त्यागे भरत सत्तम! |
त्यागो हि पुरुष व्याघ्र!
त्रिविध स्संप्रकीर्तितः ||
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यज्ञ दान तपः कर्म
न त्याज्यं कार्यमेव तत् |
यज्ञो दानं तपश्चैव
पावनानि मनीषिणाम् ||
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एता न्यपि तु कर्माणि
संगं त्यक्त्वा फलानि च |
कर्तव्या नीति मे पार्थ!
निश्चितं मत मुत्तमम् ||
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नियतस्य तु सन्न्यासः
कर्मणो नोपपद्यते |
मोहा त्तस्य परित्यागः
तामसः परिकीर्तितः ||
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दुःख मित्येव यत् कर्म
कायक्लेश भयात् त्यजेत् |
स कृत्वा राजसं त्यागं
नैव त्यागफलं लभेत् ||
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कार्य मित्येव यत् कर्म
नियतं क्रियतेऽर्जुन! |
संगं त्यक्त्वा फलं चैव
स त्याग स्सात्त्विको मतः ||
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न द्वेष्ट्य कुशलं कर्म
कुशले नाऽनुषज्यते |
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो
मेधावी छिन्नसंशयः ||
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