सांख्ययोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 2 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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श्लोक        1 - 10        11 - 20       21 - 30       31 - 40       41 - 50       51 - 60       61 - 70       71 - 72      
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संजय उवाच
तं तथा कृपयाऽविष्टं
अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् |
विषीदंत मिदं वाक्यं
उवाच मधुसूदनः ||
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श्री भगवानुवाच
कुत स्त्वा कश्मल मिदं
विषमे समुपस्थितं |
अनार्यजुष्ट मस्वर्ग्यं
अकीर्तिकर मर्जुन! ||
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क्लैब्यं मास्मगमः पार्थ!
नैतत् त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं
त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप! ||
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अर्जुन उवाच
कथं भीष्म महं संख्ये
द्रोणं च मधुसूदन! |
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि
पूजार्हा वरिसूदन! ||
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गुरू नहत्वा हि महानुभावान्,
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्य मपीह लोके |
हत्वाऽर्थकामांस्तु गुरूनिहैव,
भुंजीय भोगान् रुधिर प्रदिग्धान् ||
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न चैत द्विद्मः कतर न्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः |
यानेव हत्वा न जिजीविषामः
तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ||
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कार्पण्य दोषोऽपहत स्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः |
यत् श्रेयस्स्या न्निश्चितं ब्रूहि तन्मे,
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||
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न हि प्रपश्यामि ममापनुद्यात्
यच्छोक मुच्छोषण मिंद्रियाणां |
अवाप्य भूमा वसपत्न मृद्धं
राज्यं सुराणा मपि चाधिपत्यम् ||
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संजय उवाच
एव मुक्त्वा हृषीकेशं
गुडाकेशः परंतपः |
न योत्स्य इति गोविंदं
उक्त्वा तूष्णीं बभूव ह! ||
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तमुवाच हृषीकेशः
प्रहसन्निव भारत! |
सेनयो रुभयो र्मध्ये
विषीदंत मिदं वचः ||
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