कर्मयोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 3 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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श्लोक        1 - 10        11 - 20       21 - 30       31 - 40       41 - 43      
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अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत् कर्मण स्ते
मता बुद्धि र्जनार्दन! |
तत् किं कर्मणि घोरे मां
नियोजयसि केशव!? ||
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व्यामिश्रेणैव वाक्येन
बुद्धिं मोहयसीव मे |
तदेकं वद निश्चित्य
येन श्रेयोऽह माप्नुयाम् ||
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श्री भगवानुवाच
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा
पुरा प्रोक्ता मयाऽनघ! |
ज्ञानयोगेन सांख्यानां
कर्मयोगेन योगिनाम् ||
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न कर्मणां अनारम्भात्
नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते |
न च सन्न्यसना देव
सिद्धिं समधिगच्छति ||
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न हि कश्चित् क्षण मपि
जातु तिष्ठत्य कर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म
सर्वः प्रकृतिजै र्गुणैः ||
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कर्मेंद्रियाणि संयम्य
य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा
‘मिथ्याचार’ स्स उच्यते ||
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यस्त्विंद्रियाणि मनसा
निय म्यारभतेऽर्जुन! |
कर्मेंद्रियैः कर्मयोगं
असक्त स्स विशिष्यते ||
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नियतं कुरु कर्म त्वं
कर्मज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीर यात्रापि च ते
न प्रसिद्ध्येत् अकर्मणः ||
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यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं कर्म बंधनः |
तदर्थं कर्म कौंतेय
मुक्तसंग स्समाचर ||
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सह यज्ञैः प्रजा स्सृष्ट्वा
पुरोवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वं
एष वोऽस्त्विष्ट कामधुक् ||
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