ज्ञानयोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 4 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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श्लोक        1 - 10        11 - 20       21 - 30       31 - 40       41 - 42      
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श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं
प्रोक्तवा नह मव्ययं |
विवस्वान् मनवे प्राह
मनु रिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||
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एवं परंपरा प्राप्तं
इमं राजर्षयो विदुः |
स कालेनेह महता
योगो नष्टः परंतप! ||
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स एवायं मया तेऽद्य
योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोऽसि मे सखा चेति
रहस्यं ह्येत दुत्तमम् ||
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अर्जुन उवाच
अवरं भवतो जन्म
परं जन्म विवस्वतः |
कथ मेत द्विजानीयां
त्व मादौ प्रॊक्तवा निति ||
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श्री भगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि
जन्मानि तव चार्जुन! |
ता न्यहं वेद सर्वाणि
न त्वं वेत्थ परन्तप ||
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अजोऽपि सन् अव्ययात्मा
भूताना मीश्वरोऽपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
संभवामि आत्म मायया ||
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यदा यदा हि धर्मस्य
ग्लानि र्भवति भारत! |
अभ्युत्थान मधर्मस्य
तदाऽत्मानं सृजा म्यहम् ||
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परित्राणाय साधूनां
विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय
संभवामि युगे युगे ||
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जन्म कर्म च मे दिव्यं
एवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म
नैति मामेति सोऽर्जुन ||
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वीत राग भयक्रोधाः
मन्मया मामुपाश्रिताः |
बहवो ज्ञान तपसा
पूता मद्भाव मागताः ||
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