आत्मसंयमयोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 6 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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श्लोक        1 - 10        11 - 20       21 - 30       31 - 40       41 - 47      
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श्री भगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं
कार्यं कर्म करोति यः |
स सन्न्यासी च योगी च
न निरग्नि र्न चा क्रियः ||
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यं सन्न्यास मिति प्राहुः
योगं तं विद्धि पांडव |
न ह्य सन्न्यस्त संकल्पः
योगी भवति कश्चन ||
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आरुरुक्षो र्मुने र्योगं
कर्म कारण मुच्यते |
योगारूढस्य तस्यैव
शमः कारण मुच्यते ||
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यदा हि चेंद्रियार्थेषु
न कर्म स्वनुषज्जते |
सर्व संकल्प सन्न्यासी
योगारूढ स्तदोच्यते ||
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उद्धरे दात्मनाऽत्मानं
नात्मान मवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बंधुः
आत्मैव रिपु रात्मनः ||
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बंधुरात्माऽत्मन स्तस्य
येनाऽत्मैवाऽत्मना जितः |
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे
वर्ते तात्मैव शत्रुवत् ||
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जितात्मनः प्रशांतस्य
परमात्मा समाहितः |
शीतोष्ण सुख दुःखेषु
तथा मानाव मानयोः ||
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ज्ञान विज्ञान तृप्तात्मा
कूटस्थो विजितेंद्रियः |
युक्त इत्युच्यते योगी
सम लोष्टाश्म कांचनः ||
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सुहृ न्मित्रा र्युदासीन
मध्यस्थ द्वेष्य बंधुषु |
साधु ष्वपि च पापेषु
सम बुद्धि र्विशिष्यते ||
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योगी युंजीत सततं
आत्मानं रहसि स्थितः |
एकाकी यतचित्तात्मा
निराशी रपरिग्रहः ||
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