ज्ञानविज्ञानयोगः (श्रीमदभगवदगीता - अध्याय 7 )

श्रीश्रीश्री त्रिदंडि चिन्नश्रीमन्नारायण रामानुज जीयर स्वामीजी की दिव्य वाणी से

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श्लोक        1 - 10        11 - 20       21 - 30      
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श्री भगवानुवाच
मय्या सक्तमनाः पार्थ!
योगं युंजन् मदाश्रयः |
असंशयं समग्रं मां
यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ||
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ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानं
इदं वक्ष्याम्यशेषतः |
यद् ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यत्
ज्ञातव्य मवशिष्यते ||
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मनुष्याणां सहस्रेषु
कश्चि द्यतति सिद्धये |
यतता मपि सिद्धानां
कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ||
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भूमि रापोऽनलो वायुः
खं मनो बुद्धि रेव च |
अहंकार इतीयं मे
भिन्ना प्रकृति रष्टधा ||
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अपरेयं, इतस्त्वन्यां
प्रकृतिं विद्धि मे परां |
जीवभूतां महाबाहो!
ययेदं धार्यते जगत् ||
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एतद्योनीनि भूतानि
सर्वाणी त्युपधारय |
अहं कृत्स्नस्य जगतः
प्रभवः प्रलय स्तथा ||
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मत्तः परतरं नान्यत्
किंचि दस्ति धनंजय |
मयि सर्व मिदं प्रोतं
सूत्रे मणिगणा इव ||
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रसोऽह मप्सु कौन्तेय
प्रभास्मि शशिसूर्ययोः |
प्रणव स्सर्ववेदेषु
शब्दः खे पौरुषं नृषु ||
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पुण्यो गंधः पृथिव्यां च
तेज श्चास्मि विभावसौ |
जीवनं सर्वभूतेषु
तपश्चास्मि तपस्विषु ||
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बीजं मां सर्वभूतानां
विद्धि पार्थ! सनातनम् |
बुद्धि र्बुद्धिमता मस्मि
तेज स्तेजस्विना महम् ||
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